मेरे ख़्याल
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मैं बीती यादों को कुछ ऐसे भुलाना चाहता हूँ
कि अब गुज़रे वक्त से पीछा छुडाना चाहता हूँ
कुछ भरे और कुछ ताज़े जो घाव हैं दिल में मेरे
मैं अपने हर जख़्म को सबसे छुपाना चाहता हूं
क्यूँ तस्वीर गुज़रे मंज़र की उभरती है बार-बार
मैं उसकी हर बात को ज़हन में दबाना चाहता हूँ
ग़ैरों के दामन में गयी निलाम होकर सब हसरतें
फिर जीने की इक हसरत उनसे चुराना चाहता हूं
इन हंग़ामों से हो गयी है मेरी ज़िन्द्गी तितर-बितर
चन्द लम्हें ज़िन्द्गी के अब अकेले बिताना चाहता हूँ
बेशक ज़िन्दा हूँ पर क़तरा क़तरा मिटता हूँ रोज़ मैं
इस हर पल की मौत से अब निज़ात पाना चाहता हूं
घुमनामी ही है मुझे लाज़िम तौक़ीर कहाँ “ब्रिजेश”
मैं वक़्त की क़िताब से खुदको मिटाना चाहता हूँ
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