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अंजाम -ऐ-मुहब्बत

मेरे ख़्याल
मेरे ख़्याल
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मेरी ये रचना ऐसे इंसान को दर्शाती है जिसने झूठे प्रेम प्रसंग में पड के सभी वास्तविकताओं से नाता तोड़ लिया हो और अंत में जब उसे सत्य का  बोध हुआ तब उसकी स्थिति क्या है जरा ध्यान जियेगा –

के लुटकर भरे बाजार मुहब्बत घर को जब लोटी
न तो रसोई में आटा बचा था ना खाने को रोटी

मायूस थकी-हारी सब हसरतें भूखे पेट ही सो गई
ना ओढ़ने को चादर थी उसपे भी खाट बहुत छोटी

ना मेरी आँख के रहे ना तेरे दामन के ही हो सके
मेरी मानिंद मेरे आंसुओ की थी किस्मत बड़े खोटी

मेरे हौंसलों का हाल तो मुझसे भी बुरा था दोस्तों !!
बोले बहुत थक गए आगे जाने की हिम्मत नही होती

मेरी उम्मीदें सहती रही ज़िंदगी के सारे मज़ाक जो
सभी गैर थे अब बेचारी रोती तो किसके आगे रोती

उतर गया सर से आशिकी का भूत हमेशा के लिए
ज़नाब अब दिल लगाने की मेरी हिम्मत नही होती

और सब नज़र का धोखा है दिल का फरेब है लोगो
ये पल दो पल की आशनाई कभी मुहब्बत नही होती

सब रंग देखे है ज़माने के तो न बहला मुझे ऐ वफ़ा !!
अब गुल की हिफाज़त में खार की इसरत नही होती

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